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शिव का सावन और धर्म का मजाक

हैरत
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अपनी इस ज़िन्दगी में जब से ईश्वर-परमात्मा में आस्था विकसित हुई, मेरी तभी से शिव में श्रद्धा है। पूरे विश्वास और दृढ़ता से उनकी अच्छाइयां मुझे आकर्षित करती हैं। मेरे हिसाब से भगवान या किसी भी देवता का मतलब ही उनके आदर्श और अच्छाइयां को देखना होता है। अस्तित्व और रूढ़ियों पर बहस आपको एक सामान्य कुतर्की इंसान की श्रेणी में ला देता है, क्योंकि उस वक़्त आप सिर्फ उन चीजों पर ध्यान देते हैं जिनका कोई मतलब नहीं होता। शिव की विशेषताओं की बात करें तो उनकी सबसे बड़ी खासियत उनकी एकाग्रता है। मैं ना तो कभी कोई उपवास-व्रत रखता हूँ ना ही कभी सावन में जाकर शिवलिंग पर जल चढ़ाता हूँ (घर पर रहने और किसी विशेष परिस्थिति को छोड़ दिया जाए तो)। फिर भी मेरी आस्था सभी देवताओं में सिर्फ इसलिए नहीं है कि मैं ऐसे परिवार में पैदा हुआ हूँ बल्कि इसलिए क्योंकि इन देवताओं की वजह से कभी भी मुझपर कोई अनावश्यक दबाव नहीं बना। हम ताउम्र कितने ऐसे काम करते हैं जिनका कोई मतलब नहीं होता बस करते जाते हैं। ईश्वर में आस्था थोड़ा बहुत वैसा ही है लेकिन इसका मतलब है। ना जाने कितने क्षण ऐसे होते हैं जब आपको लगता है आप सब कुछ नहीं कर सकते या कोई नहीं कर सकता तब आपका इंसानों से भरोसा उठने लगता है। ईश्वर की ज़रूरत तभी पड़ती है। जरूरत का अर्थ ये नहीं कि वो आपका वो काम कर देंगे लेकिन अगर आपने एक शक्ति का एहसास भर कर लिया तो वो आपके अंदर आत्मविश्वास जगाने का काम कर सकता है।
आत्मविश्वास जागने से लेकर धर्म की अनेक कहानियां हैं। शिव भक्ति दिखाने की कहानी उससे भी ज्यादा हैं। सावन में तो ऐसी ही कहानियां सड़कों पर दिखती हैं। मैं धर्म का ज्ञाता नहीं हूँ सो शायद मेरी समझ गलत हो सकती है लेकिन मुझे इतना विश्वास है कि नैतिकता और सच्चाई का रास्ता दिखाने वाले किसी भी धर्म में प्रदर्शन की कोई जगह नहीं होगी। हाँ ये सच है कि कई कांवरिये सावन में अपनी शिवभक्ति और आस्था को पूरी ईमानदारी से निर्वहन करते हुए भोलेनाथ के प्रति प्रेम भाव से जाते हैं। लेकिन आज के दृश्य को देखते हुए ऐसे लोगों को ढूँढना मेरे लिए मुश्किल होगा। हरिद्वार हो या देवघर शिव के सभी ठिकानों पर ‘जल चढ़ाने’ को हाहाकार मचा है। सृष्टि की रचना से लेकर इन शिवालयों की स्थापना के वक़्त भी सावन एक महीने का होता होगा और भक्त भी तुलनात्मक रूप से काफी कम संख्या में। अब सोचिये कई हजार गुना ज्यादा संख्या और उतने ही समय में आस्था का ये ओवरडोज़ शिव और शिवालयों का क्या हाल करते होंगे। अगर सभी शिवभक्तों के श्रद्धा पर सवाल ना भी उठायें, हालाँकि ये लिखना भी मुश्किल है सोचना तो बहुत दूर है फिर भी मान लें तो क्या भक्ति के इस विशाल जन बहाव में उनकी बात भगवान तक पहुँच पाती होगी।
मेरे ख्याल से शिव की ऐसी अल्हड़ भक्ति के पीछे बहुत से कारक हैं। आज का मानव बहुत ही चालाक है। शिव की अनेकों खासियतों में उसने उन चीजों को अपनाया जिससे समाज और परमार्थ कोई सम्बंध नहीं। शिव ने वो किया क्योंकि उसका दुनिया से मतलब था जबकि लोग उसको अपने मतलब से करते हैं। जनसँख्या विस्फोट के कारण पहले से फंसी सड़कें सावन की भक्ति से हार मान जाती हैं। गाड़ियों की चिल्लपों से परेशान बूढ़े कान डीजे की आरती से “मोक्ष” को प्राप्त हो जाते हैं। पता नहीं इस सबसे शिव खुश हो जाते हैं या नहीं। हो भी सकते हैं आखिर वो हैं भी तो संहारकर्ता। दूसरे धर्मों में भी यही हाल है जहाँ ईश्वर के सहजगुणों को ऐसे ही डीजे पर ‘बेस’ के साथ बजाया जाता है।
योग, आध्यात्म और ध्यान वाले इस देश की संस्कृति इस तरीके से सड़कों पर आ जायेगी इसपर ध्यान देना होगा। आखिर वो क्या है जो इस हुड़दंग में कुंठित होकर बाहर आती है। पता लगाकर उसका इंतज़ाम सावन से पहले कर दिया जाए तो शायद पवित्र सावन में शिव के असली भक्तों के लिए जगह बच जाए, और साथ ही मार्ग-ठहराव के नाम पर मंदिरों में ताश खेलने के बजाय दूसरे स्थानीय लोग ईश्वर को पाने की कोशिश करते दिखें। गांजा, शराब और दूसरे नशों से जवानी बर्बाद ना होकर देश के काम भी आ सकती है आखिर शिव ने लोगों के लिये ही जहर पिया था किसी शौक में नहीं। धर्म आपके लिए है आप धर्म के लिए नहीं। धर्म आपको उसी दिन छोड़ देता है जब आप उसमें सुविधाजनक चुनाव करते हैं। धर्म अच्छी ज़िन्दगी के लिए है और ज़िन्दगी ईश्वर की दी हुई है, बस मान लीजिए।

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