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लोकतांत्रिक अनुभव और इलेक्ट्रॉनिक निराशा

हैरत
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संसद में इंटर्नशिप के लिए निकले विज्ञापन से प्रभावित होकर फॉर्म डालने की तैयारी के साथ संसद लाइब्रेरी के स्वागत कक्ष तक पहुंचना। ये शुरूआती लाइन मेरे संसद भवन परिसर में पहली दफा जाने की मुश्किलों को शायद बयां ना कर पा रही हो। जुलाई की मानसूनी बारिश और रास्ते की नासमझी ने यहां तक पहुँचने में शरीर पर ‘हल्के बल प्रयोग’ वाली फीलिंग ला दी थी। खैर मैं फिर भी उत्साहित था। तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था में रिसेप्शन पर ही फॉर्म छोड़ने के बाद मैंने नजरों से दीवारों की स्कैनिंग प्रक्रिया में संसद म्यूजियम घूमने का दिमागी कार्यक्रम तैयार कर लिया। आखिर बाहर हो रही तेज बारिश के रुकने तक खुद को इतना व्यस्त रखना फायदे का सौदा था। अपने तीनों फॉर्म डालने वाले दोस्तों के साथ हम चारों एक 13 लोगों के ग्रुप में संसदीय गाइड के साथ संग्रहालय में घुसे। मजेदार बात ये थी कि हमें ये नहीं पता था कि जब हम अपने आखिरी दोस्त का फॉर्म आराम से तसल्ली के साथ भर रहे थे तब बाक़ी 9 लोग बाहर हमारा इंतज़ार कर रहे थे क्योंकि हमें एक साथ जाना था। 15 मिनट के इस अंजान प्रतीक्षा कराने से सबसे ज्यादा दिक्कत संग्रहालय कर्मचारियों को हुई लेकिन हम उस वक़्त ‘मासूम की श्रेणी’ में थे।
तो हम तात्कालिक रूप से बनाई गई अपनी जिज्ञासा के साथ औपचारिकताओं को पूरा करते हुए म्यूज़ियम के अंदर थे। अंदर घुसते ही हमारा गाइड एक अनोखे नियमानुसार बदला गया जिसने जानकारी की यात्रा शुरू कर दी। बौद्ध स्तूप, बौद्ध सभा और अकबर के दरबार से लोकतंत्र की व्याख्या करते हुए उसने हम सबको लोकतांत्रिक खुराक देना शुरू कर दिया। थोड़ा आगे बढ़ते ही हमें देश की सभी भाषाओँ के ऑडियो सिस्टम और कलाकृतियों से राष्ट्रीय एकता का सन्देश भी प्राप्त हुआ। अब हम अगले चरण में स्वतन्त्रता संग्राम के चलचित्र हॉल में थे जहां पहली क्रांति से गांधी जी के असली भाषण को क्रमबद्ध तरीके से सुनाया गया। एक वर्चुअल दांडी यात्रा में हमने गांधी जी के साथ चहल कदमी भी की जिसके लिए एक खास स्टूडियो बनाया गया है।
किसी भी संग्रहालय में रखे गए पुराने सामान को देखने के अनुभव से हटकर ये सब वाकई थोड़ा रुचिकर था। लेकिन हमारा अगला क्रम पुराने अनुभव सरीखा रहा जहाँ संसद के पहले स्पीकर से जुड़े दस्तावेज़ और सुरक्षा अधिकारियों की ड्रेस देखने को मिलीं। इसके तुरन्त बाद एक छोटे मगर शानदार प्रेक्षागृह में घुसने पर गाइड ने बताया यहां 15 मिनट की डॉक्यूमेंट्री दिखाई जाती है लेकिन फ़िलहाल ‘सिस्टम’ खराब है। मैं ये सुन कर थोड़ा सा निराश हुआ लेकिन इस निराशा को मैंने तुरन्त इलेक्ट्रॉनिक गड़बड़ियों की फ्रीक्वेंसी समझ भूल गया और आगे ग्रुप के साथ बढ़ गया। आगे बढ़ते ही लोकतंत्र के 3 ऑर्गन्स के साथ चौथे ऑर्गन के प्रतीक के रूप में अख़बारों को लगा देख मेरी शर्ट थोड़ी सी खिंच गयी। इस सुखद एहसास के बाद गांधी जी की अस्थि दर्शन और संविधान के कुछ अध्यायों को देखने के बाद हमने संविधान ड्राफ्टिंग के आकर्षक मॉडल को भी देखा। देश की पहली चुनाव प्रक्रिया और आज की प्रक्रिया में कितना बदलाव हुआ है ये सब आप यहां के प्रथम चुनाव प्रक्रिया में देख सकते हैं। औरतों और अल्पसंख्यकों के बराबरी के हक को दर्शाती इस झांकी में एक नकबशुदा औरत पुराने तरीके से अपने लोकतांत्रिक अधिकार का इस्तेमाल करती दिखाई गई है। इसे देखने के बाद मुझे अपने खुद के आंतरिक दिमागी खुजली में पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह का एक बयान याद आ गया जिसमें उन्होंने कहा था देश के संसाधनों पर सबसे पहले अल्पसंख्यकों का हक़ है।
अगले पड़ाव में हम इस शानदार डिज़ाइन किये गए संग्रहालय भवन में दूसरी मंजिल पर बने लोकसभा और राज्यसभा मॉडल के सामने थे। लेकिन कुछ देर पहले दूर हुई मेरी इलेक्ट्रॉनिक निराशा यहां लौट आई, जब यहां के अधिकतर कंप्यूटर सिस्टम ख़राब मिले। इनका सही रहना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि ये सामने के मॉडल की पूरी जानकारी मुहैया कराते हैं। आखिर में हम फिर से एक वर्चुअल कक्ष में थे और ये था संसद का केंद्रीय हॉल। स्वतन्त्रता पूर्व देश के सभी बड़े नेताओं के सामने डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में पं नेहरू के भाषण को यहां बड़े रोचक रूप से सुनाया गया। सभी सीटों पर एक नेता के बगल में एक सीट खाली रखी गई है जहां आप किसी के भी साथ बैठ सकते हो और नेहरू और डॉ राजेन्द्र प्रसाद को हिलते हुए देखा जा सकता है। भाषण की आवाज़ भी असली सो ऐसा लगा हम फिर से आज़ाद होने वाले हैं। हुआ भी यही थोड़ी देर बाद यहां से निकलकर म्यूज़ियम खरीदारी करने के बाद हम यहां से आज़ाद कर दिए गए।
ये थी संसद म्यूज़ियम टूर की पूरी कहानी। अच्छा लगा लेकिन बन्द सिस्टम का बुरा अनुभव भी साथ रहा। इतने खर्चीले और भव्य म्यूज़ियम को थोड़े अच्छे देखभाल की ज़रूरत है। मेरे लिए लगभग सभी जानकारियां पुरानी थीं फिर भी जिन्हें राजनीति और लोकतन्त्र की खोजबीन में थोड़ी रूचि हो उनके लिए यहां का दौरा एक अच्छा फैसला होगा। साथ ही उन्हें ये उम्मीद भी करनी चाहिए की यहां की इलेक्ट्रॉनिक गड़बड़ियां उन्हें देखने को नहीं मिलें।

-नूतन कुमार गुप्ता

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